जम्मू-कश्मीर के लेह स्थित नूबरा वैली की शीरीन फातिमा को पहली महिला बालटी लोक गायिका होने का गौरव प्राप्त हुआ है। हाल ही में उन्हें जम्मू कश्मीर सरकार की तरफ से संगीत क्षेत्र में योगदान के लिए राज्य पुरस्कार से सम्मानित किया गया। कठिनाइयों से भरे अपने सफर में उन्हें धार्मिक कट्टरपंथ का भी सामना करना पड़ा। मगर संगीत उन्हें ऊर्जा देता रहा तो परिवार का साथ मनोबल बढ़ाता रहा। सोशल मीडिया लोगों तक पहुंचने का माध्यम बना रहा और देखते-देखते वह सबसे लोकप्रिय बालटी लोकगायिका बन गईं। बलतिस्तानियों की कुल आबादी 12 लाख है, जो एक बड़ी संख्या है। वॉट्सऐप, फेसबुक के जरिए लोग विडियो और फोटो से एक-दूसरे का हाल लेते हैं। एक बड़ा ही मार्मिक दृश्य मैंने देखा, जहां एक परिवार के दो लोग 47 सालों के इंतजार के बाद एक-दूसरे से विडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए बात कर पाए ।बचपन से ही मेरा संगीत की तरफ रुझान था। घर में दादाजी और मेरे पिता को भी संगीत का शौक था। तेरह साल की उम्र से मैंने गाना शुरू किया। यहां मैं भारतीय सेना के असीम योगदान का जिक्र करना चाहूंगी, जिसने मेरे संगीत की दिशा निर्धारित की। वर्ष 2002 में सद्भावना कार्यक्रम के अंतर्गत एक जलसा हुआ, जहां मैंने पहली बार गाना गाया और मेरी बहनों ने डांस भी किया। पढ़ाई के साथ-साथ मैंने कई जगह स्टेज परफॉर्मेंस दिए। मेरेपास ज्यादा सुविधा और साधन तो थे नहीं, इसलिए मैंने यूट्यूब और फेसबुक के जरिए अपने गाने लोगों तक पहुंचाने का काम किया। मेरे गाने, ग्रीफशत सुला बेक खासा लोकप्रिय हुआ। धीरे-धीरे मुझे लोग सनने लगे और मुझे पहली बालटी महिला सोशल मीडिया स्टार के रूप में जाना जाने लगा हां, मुझे संकीर्ण सोच, धार्मिक कट्टरपंथ और काफी सामाजिक दबाव झेलना पडा। गांव के लोग कहते, गाना अच्छी लड़कियों का काम नहीं। गांववालों ने हमें बहिष्कृत कर दिया और हमें अपना गांव छोड़ कर देहरादून आना पडा। मेरी खशकिस्मती है कि मेरे पिता ने किसी भी दबाव की कभी परवाह नहीं की। साधनों की कमी और अपनी जमीन छोड इतनी दर मुकाम तलाशने की जद्दोजहद ने मझे कई बातें सिखाई हैं। बिल्कुल, मुझे अपनी बालटी संस्कृति पर नाज है और अपने फेसबुक पेज के जरिए बालटी सांस्कृतिक धरोहर के बारे में कई बातें साझा करती रहती हूं। वहां के खास खाने, पहनावे, साज-सिंगार, वहां की खूबसूरत जगहों की फोटो आदि शेयर करके उस जगह से बाकी दुनिया को वाकिफ कराने की कोशिश करती हूं। आपको बताना चाहूंगी कि लद्दाखी और बालटी संस्कृति में काफी समानताएं हैं। यही वजह है कि भारत के हिस्से के इन पांच बालटी गांवों में जिस तरह बालटी संस्कृति का पालन या संरक्षण हुआ है, उतना तो बलतिस्तान में भी नहीं हुआ। अपने बालटी लोकसंगीत और गीतों की विरासत को हमने संजोकर रखा है। वरना बलतिस्तान में तो बालटी लोकसंगीत लुप्तप्राय हो चुका है। पत्नियों को टिकट दिलाने के लिए मशक्कत कर रहे बिहार के बाहुबलीक्या आज भी आपके संगीत और परिवार के प्रति आपके गांव वालों का रवैया वही है या कुछ बदला है? जब से मुझे जम्मू कश्मीर राज्य अवॉर्ड मिला है, लोगों के रवैये में काफी बदलाव हुआ है। उन्हें अपनी गलती समझ आ रही है। सोशल मीडिया पर मेरी मजबूत पैठ की खबर उन्हें भी है। एक स्वस्थ सोच की वजह से मेरे और मेरे परिवार के हालात बदले जबकि वे अभी भी उसी दुनिया में कैद हैं। मेरी छोटी बहन, एलएलबी कर रही है और वह हमारे इलाके की पहली लॉ ग्रेजुएट होगी। मेरी बाकी दो बहनें भी बारहवीं और दसवीं में पढ़ रही हैं। मेरा भाई भी इंजीनियरिंग के फाइनल ईयर में है।अगले महीने हम अपने गांव वापस जा रहे हैं। मैं पहले की तरह ही फेसबुक, यूट्यूब पर अपने गाने अपलोड करती रहूंगी। मुझे उम्मीद है कि मेरी इन कोशिशों का मेरे गांव और बलतिस्तान के लोगों पर अच्छा असर पड़ेगा।
भारत के पांच गांवों ने संजो रखी है बाल्टिस्तान की धरोहर
• Noorul Hasan